Wednesday, August 6, 2008

आओ सबकुछ उलट दें



आओ सब उलट दें
ये ताल, ये पोखर
ये झरनें, ये नदियां
ये लहरें, ये समंदर

आओ सब उलट दें
ये पौधे, ये जंगल
ये पत्थर, ये पहाड़
ये रेत, ये रेगिस्तान

आओ सब उलट दें
ये चांद, ये धरती
ये सूरज, ये तारे
ये आकाश, ये ब्रम्हांड

आओ सब उलट दें कि
उलटी हैं जमाने की रस्में
उलटा है संविधान
और उलटा है
दुनिया का विधान

अगर सब उलटा नहीं होता
तो नहीं होती कोई वजह
गरीबी और भूख की.
जगमगाते हाईवे पर
बने विशाल ढाबे में
सिसकते, दम तोड़ते
तरसते बचपन की.
चकाचौंध शॉपिंग मॉल से सटे
लैम्पपोस्ट की परछाई में
जिस्म के सौदे की.
संसद को छूकर गुजरती
सड़क पर भीख मांगते सूरदास की.
जमींदार के खेतों में
पसीना बहाते मजदूरों की.
इंसानी ईंधन से जलती
ईंट की भट्टी की.
लाले की दुकान में खटते
नौकरों की.

अगर सब उलटा नहीं होता
तो नहीं थी कोई वजह
हक़ की जगह
अंतहीन समझौतों की.
गुलाम समाज की.
हर रोज़ सपनों की मृत्यु से
बढ़ती सड़ांध की.

इसलिए आओ...
एकजुट हो, सामने आओ
जोर लगाओ, और उलट दो
अब तक बने सारे सिद्धांत
इस सृष्टि के, और इंसान के
बनाए सारे नियम

आखिर क्यों हज़ारों साल से
पृथ्वी ही सूरज के चक्कर लगाए.
क्यों नहीं वो थोड़ी देर थमे
सुस्ताए, आराम फरमाए .
रात बढ़ती है बढ़ने दो
दिन खिंचता है खिंचने दो
ज़्यादा ज़रूरत होगी
चक्कर सूरज लगा लेगा
थोड़ा पसीना बहा लेगा
आखिर क्यों हज़ारों साल से
एक तबका जुल्म सहता रहे
पीढ़ी दर पीढ़ी.
क्यों नहीं वो एक हो
हिसाब मांगे जुल्मों का
फैक्ट्रियों में, खेतों में जोत दें
बैलों की जगह दबंगों को

इसलिए आओ और उलट दो
उलट दो सबकुछ, कुछ ऐसे कि
चूहों से डरे बिल्ली
हिरण से डरे शेर
डॉल्फिन से डरे सार्क
गौरैया से डरे बाज

उलट दो सबकुछ
इसलिए कि उलटे हैं हुक्मरान
और उलटी है उनकी बनाई दुनिया

Monday, August 4, 2008

संविधान ... एक साज़िश

संविधान...
चंद पन्नों पर दर्ज, चंद शब्द नहीं
बड़ी बारीक और गहरी साज़िश है
होती है हर रोज़ नाइंसाफ़ी
लाखों... करोड़ों इंसानों के साथ
संविधान की आड़ में

जी हां, इसी संविधान की आड़ में
मुझ पर और आप पर करते हैं राज
कुछ मुट्ठी भर अपराधी
कुछ क़ातिल, कुछ बलात्कारी
कुछ रिश्वतख़ोर, कुछ ४२०
और कुछ देशद्रोही

ये संविधान न मेरा है
ना ही तुम्हारा, ना हमारा
ये उनका है, उनके लिए
उनके द्वारा बनाया हुआ
इसी संविधान के जरिये
उन्होंने ली है मंज़ूरी धोखे से
हमसे... हम पर शासन के लिए

Sunday, August 3, 2008

वो बड़ा धार्मिक है

धर्म हथियार है
किसी और हथियार से ज़्यादा घातक
वो यह हथियार चलाने में माहिर है
तभी तो है वो सदी का सबसे बड़ा विजेता
उसने धर्म के जरिये किये हैं नरसंहार
दी है बलि हजारों इंसानों की
वो सिर्फ़ सदी का सबसे बड़ा विजेता ही नहीं
सदी का सबसे बड़ा धर्मगुरु भी है

Saturday, August 2, 2008

भाग्य विधाता

वो भाग्य विधाता हैं मेरे और तुम्हारे
वो तय करते हैं मेरा और तुम्हारा भविष्य
मेरे और तुम्हारे पसीने की क़ीमत
मेरे और तुम्हारे लहू का मोल
एयरकंडिशन्ड दफ़्तर में बैठे
बिना एक बूंद पसीना बहाए

Friday, August 1, 2008

मैंने उसे देखा, ज़िंदगी के लिए लड़ते हुए

((इसरार ने दम तोड़ दिया. साथ ही एक और ज़िंदगी का अंत हो गया. बाप रो रहा है. मां खुद भी ज़ख़्मी है और बेटे की मौत ने उसके ज़ख़्मों को बढ़ा दिया है. इसरार की मौत कई सवालों का जवाब देती है. उन लोगों के मुंह पर कालिख पोतती है जो हिंसा के रास्ते सपनों को पूरा करना चाहते हैं. इसरार एक मुसलमान था और उसकी ज़िंदगी छीनने वाले वो मुसलमान हैं जिन्होंने अहमदाबाद और बेंगलौर में धमाके किये. ये उनके लिए सबक है कि हिंसा का कोई धर्म नहीं होता और हिंसा फैलाने वाले भी किसी धर्म के नहीं होते. वो तो नफ़रत की सियासत करते हैं और अपने कुतर्कों से अपने लिए उस हिंसा का आधार तलाशते हैं. ये कविता मैंने दो दिन पहले लिखी थी. इस पर अभी काम करना चाहता था. लेकिन इस बीच इसरार ने दम तोड़ दिया है. डॉक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया है. इसलिए इस आधी-अधूरी कविता को अभी चस्पा कर रहा हूं. पूरा करने के बाद फिर चस्पा करूंगा.))



मैंने उस मासूम को देखा
हर सांस लड़ते हुए ज़िंदगी के लिए
लेटा हुआ था वो खामोश...
खून से सने सफेद बिस्तर पर
आंखें बंद, चेहरा स्थिर
सांसें वेंटिलेटर के सहारे
तभी धड़कन कुछ अटकी
जिस्म में हलचल हुई
सिर पीछे तन गया
धड़ थोड़ा अकड़ गया
अजीब आवाजें आने लगीं
जैसे कुछ अटक गया हो गर्दन में
और निकाले नहीं निकल रहा
फिर एक तेज हिचकी आई
और सबकुछ शांत

दो दिन बीत चुके हैं
मेरे शहर में हुए धमाकों को
मगर नहीं है कोई सुधार
इस बच्चे की सेहत में
बाप है कि रोए जा रहा है
बेटा-बेटा चिल्लाए जा रहा है
बेटा कुछ सुने तो कहे
वो तो तार-तार
ज़िंदगी के सहारे
लड़ रहा है मृत्यु से

सिर्फ़ यही मासूम नहीं
लड़ कुछ और भी रहे हैं
सरकार से, मुल्क से
हमसे, आपसे और खुद से भी
कहते हैं ये धर्मयुद्ध है
इसी से कायम होगी हुकूमत खुदा की
खुलेगा द्वार जन्नत का
जीते तो सब उनका, मरे तो मिलेगी मुक्ति

मुक्ति किस चिड़िया का नाम है
धर्म युद्ध क्या है
जन्नत कैसी होती है
मैं ये नहीं जानता
बस जानता हूं तो इतना
बिस्तर पर लेटा बच्चा
मोहम्मद इसरार है
उम्र आठ साल
बाप मोहम्मद जलील
मां शुगरा बानो
जो खुद भी ज़ख़्मी है
मगर अपने ज़ख़्मों से ज़्यादा
चिंता है बेटे की

पूछने पर मां बताती है
डरावनी शाम का ब्योरा देती है
उसे याद है, अच्छी तरह
रिक्शे पर सवार बेटे संग लौट रही थी घर
तभी जोरदार आवाज आई
कोई भारी चीज सिर पर लगी
वो चोट सह गई
बच्चा सह ना सका
चेहरे पर दर्द लिये
गिर गया कटे वृक्ष सा
सड़क पर खिंच गई
लहू की पतली लकीर
मगर धड़कन जिंदा थीं
कुछ लोग उठा कर
मां-बेटे को अस्पताल पहुंचा गये
वो हिंदू थे या मुसलमान
मुझे नहीं मालूम
कमबख़्त डॉक्टर भी
ना में सिर हिलाता है
मगर पूछने पर
बताता है अपना नाम अशोक
वो ये भी बताता है
अस्पताल के हर कोने में
घात लगाए बैठा है यम
भर्ती हैं कई और इसरार
हर कहीं चल रहा है
संघर्ष सांसों का

संघर्ष सत्ता के गलियारे में भी है
और क्या खूब है सियासतदान
ज़िंदगी तो ज़िंदगी
वो मौत बेचने के फन में भी माहिर हैं
धमाकों के बाद से
बढ़ गई पूछ मेरे शहर की
जारी है सिलसिला
नेता के आने-जाने का
दक्षिणपंथी भी आए
वामपंथी भी आए
समाजवादी भी आए
पूंजीवादी भी आए
और वो भी आए
जो खुद को बताते हैं बीच का
मतलब कहीं नहीं और हर जगह
कोई नहीं और हर कोई
साथ ही जारी हैं विरोध प्रदर्शन
कहीं दादागीरी, कहीं गांधीगीरी

हमने देखा है पहले भी, कई बार
देखेंगे आगे भी, हर बार
ये सबकुछ वैसा ही है
जैसे हमारे हुक्मरान हर साल
चमकती उजली लिबास में
चमचमाती महंगी कार में
चढ़ा आते हैं दो अक्टूबर को
बापू की समाधि पर दो फूल
वैसे ही हर धमाके के बाद
बहा आते हैं आंसू के दो बूंद
मृतकों के नाम पर
फिर इंतज़ार अगले धमाके का
आखिर धमाकों के बगैर
चलेगी कैसे सियासत नफ़रत की

इसरार और उस जैसों का क्या
उनके हिस्से तो ज़ख़्म हैं
उन्हें तो हर रोज मरना है, जीना है
ज़ख़्मों के सहारे सिसकते हुए, तड़पते हुए