Friday, August 1, 2008

मैंने उसे देखा, ज़िंदगी के लिए लड़ते हुए

((इसरार ने दम तोड़ दिया. साथ ही एक और ज़िंदगी का अंत हो गया. बाप रो रहा है. मां खुद भी ज़ख़्मी है और बेटे की मौत ने उसके ज़ख़्मों को बढ़ा दिया है. इसरार की मौत कई सवालों का जवाब देती है. उन लोगों के मुंह पर कालिख पोतती है जो हिंसा के रास्ते सपनों को पूरा करना चाहते हैं. इसरार एक मुसलमान था और उसकी ज़िंदगी छीनने वाले वो मुसलमान हैं जिन्होंने अहमदाबाद और बेंगलौर में धमाके किये. ये उनके लिए सबक है कि हिंसा का कोई धर्म नहीं होता और हिंसा फैलाने वाले भी किसी धर्म के नहीं होते. वो तो नफ़रत की सियासत करते हैं और अपने कुतर्कों से अपने लिए उस हिंसा का आधार तलाशते हैं. ये कविता मैंने दो दिन पहले लिखी थी. इस पर अभी काम करना चाहता था. लेकिन इस बीच इसरार ने दम तोड़ दिया है. डॉक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया है. इसलिए इस आधी-अधूरी कविता को अभी चस्पा कर रहा हूं. पूरा करने के बाद फिर चस्पा करूंगा.))



मैंने उस मासूम को देखा
हर सांस लड़ते हुए ज़िंदगी के लिए
लेटा हुआ था वो खामोश...
खून से सने सफेद बिस्तर पर
आंखें बंद, चेहरा स्थिर
सांसें वेंटिलेटर के सहारे
तभी धड़कन कुछ अटकी
जिस्म में हलचल हुई
सिर पीछे तन गया
धड़ थोड़ा अकड़ गया
अजीब आवाजें आने लगीं
जैसे कुछ अटक गया हो गर्दन में
और निकाले नहीं निकल रहा
फिर एक तेज हिचकी आई
और सबकुछ शांत

दो दिन बीत चुके हैं
मेरे शहर में हुए धमाकों को
मगर नहीं है कोई सुधार
इस बच्चे की सेहत में
बाप है कि रोए जा रहा है
बेटा-बेटा चिल्लाए जा रहा है
बेटा कुछ सुने तो कहे
वो तो तार-तार
ज़िंदगी के सहारे
लड़ रहा है मृत्यु से

सिर्फ़ यही मासूम नहीं
लड़ कुछ और भी रहे हैं
सरकार से, मुल्क से
हमसे, आपसे और खुद से भी
कहते हैं ये धर्मयुद्ध है
इसी से कायम होगी हुकूमत खुदा की
खुलेगा द्वार जन्नत का
जीते तो सब उनका, मरे तो मिलेगी मुक्ति

मुक्ति किस चिड़िया का नाम है
धर्म युद्ध क्या है
जन्नत कैसी होती है
मैं ये नहीं जानता
बस जानता हूं तो इतना
बिस्तर पर लेटा बच्चा
मोहम्मद इसरार है
उम्र आठ साल
बाप मोहम्मद जलील
मां शुगरा बानो
जो खुद भी ज़ख़्मी है
मगर अपने ज़ख़्मों से ज़्यादा
चिंता है बेटे की

पूछने पर मां बताती है
डरावनी शाम का ब्योरा देती है
उसे याद है, अच्छी तरह
रिक्शे पर सवार बेटे संग लौट रही थी घर
तभी जोरदार आवाज आई
कोई भारी चीज सिर पर लगी
वो चोट सह गई
बच्चा सह ना सका
चेहरे पर दर्द लिये
गिर गया कटे वृक्ष सा
सड़क पर खिंच गई
लहू की पतली लकीर
मगर धड़कन जिंदा थीं
कुछ लोग उठा कर
मां-बेटे को अस्पताल पहुंचा गये
वो हिंदू थे या मुसलमान
मुझे नहीं मालूम
कमबख़्त डॉक्टर भी
ना में सिर हिलाता है
मगर पूछने पर
बताता है अपना नाम अशोक
वो ये भी बताता है
अस्पताल के हर कोने में
घात लगाए बैठा है यम
भर्ती हैं कई और इसरार
हर कहीं चल रहा है
संघर्ष सांसों का

संघर्ष सत्ता के गलियारे में भी है
और क्या खूब है सियासतदान
ज़िंदगी तो ज़िंदगी
वो मौत बेचने के फन में भी माहिर हैं
धमाकों के बाद से
बढ़ गई पूछ मेरे शहर की
जारी है सिलसिला
नेता के आने-जाने का
दक्षिणपंथी भी आए
वामपंथी भी आए
समाजवादी भी आए
पूंजीवादी भी आए
और वो भी आए
जो खुद को बताते हैं बीच का
मतलब कहीं नहीं और हर जगह
कोई नहीं और हर कोई
साथ ही जारी हैं विरोध प्रदर्शन
कहीं दादागीरी, कहीं गांधीगीरी

हमने देखा है पहले भी, कई बार
देखेंगे आगे भी, हर बार
ये सबकुछ वैसा ही है
जैसे हमारे हुक्मरान हर साल
चमकती उजली लिबास में
चमचमाती महंगी कार में
चढ़ा आते हैं दो अक्टूबर को
बापू की समाधि पर दो फूल
वैसे ही हर धमाके के बाद
बहा आते हैं आंसू के दो बूंद
मृतकों के नाम पर
फिर इंतज़ार अगले धमाके का
आखिर धमाकों के बगैर
चलेगी कैसे सियासत नफ़रत की

इसरार और उस जैसों का क्या
उनके हिस्से तो ज़ख़्म हैं
उन्हें तो हर रोज मरना है, जीना है
ज़ख़्मों के सहारे सिसकते हुए, तड़पते हुए

3 comments:

vipinkizindagi said...

bahut marmik aur bahut achchi rachna hai,
ummid hai aage bhi esi rachnay padne ko milengi....

Rajesh Roshan said...

कितने इसरार कितनी कविताये...कितने जख्म लेकिन वही हँसी नेताओ के चेहरे पर... कुछ तो बदले
इसरार, कविताये, जख्म... या फ़िर नेताओ की हँसी..... उफ्फ्फ... कुछ भी नही बदल रहा.... सांसे घुट रही हैं मेरी भी अब तो.....

बहुत अच्छे भावः से लिखी गई पंक्तिया... आपको सलाम

travel30 said...

SAch mein hriday ko chua aapki rachna ne.. lekin Rajesh roshna ji ki baat se sahmat hu ki.. Hamare Netao ke dil kab pasijege?? Kab har taraf Shanti hogi?

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