Wednesday, August 6, 2008

आओ सबकुछ उलट दें



आओ सब उलट दें
ये ताल, ये पोखर
ये झरनें, ये नदियां
ये लहरें, ये समंदर

आओ सब उलट दें
ये पौधे, ये जंगल
ये पत्थर, ये पहाड़
ये रेत, ये रेगिस्तान

आओ सब उलट दें
ये चांद, ये धरती
ये सूरज, ये तारे
ये आकाश, ये ब्रम्हांड

आओ सब उलट दें कि
उलटी हैं जमाने की रस्में
उलटा है संविधान
और उलटा है
दुनिया का विधान

अगर सब उलटा नहीं होता
तो नहीं होती कोई वजह
गरीबी और भूख की.
जगमगाते हाईवे पर
बने विशाल ढाबे में
सिसकते, दम तोड़ते
तरसते बचपन की.
चकाचौंध शॉपिंग मॉल से सटे
लैम्पपोस्ट की परछाई में
जिस्म के सौदे की.
संसद को छूकर गुजरती
सड़क पर भीख मांगते सूरदास की.
जमींदार के खेतों में
पसीना बहाते मजदूरों की.
इंसानी ईंधन से जलती
ईंट की भट्टी की.
लाले की दुकान में खटते
नौकरों की.

अगर सब उलटा नहीं होता
तो नहीं थी कोई वजह
हक़ की जगह
अंतहीन समझौतों की.
गुलाम समाज की.
हर रोज़ सपनों की मृत्यु से
बढ़ती सड़ांध की.

इसलिए आओ...
एकजुट हो, सामने आओ
जोर लगाओ, और उलट दो
अब तक बने सारे सिद्धांत
इस सृष्टि के, और इंसान के
बनाए सारे नियम

आखिर क्यों हज़ारों साल से
पृथ्वी ही सूरज के चक्कर लगाए.
क्यों नहीं वो थोड़ी देर थमे
सुस्ताए, आराम फरमाए .
रात बढ़ती है बढ़ने दो
दिन खिंचता है खिंचने दो
ज़्यादा ज़रूरत होगी
चक्कर सूरज लगा लेगा
थोड़ा पसीना बहा लेगा
आखिर क्यों हज़ारों साल से
एक तबका जुल्म सहता रहे
पीढ़ी दर पीढ़ी.
क्यों नहीं वो एक हो
हिसाब मांगे जुल्मों का
फैक्ट्रियों में, खेतों में जोत दें
बैलों की जगह दबंगों को

इसलिए आओ और उलट दो
उलट दो सबकुछ, कुछ ऐसे कि
चूहों से डरे बिल्ली
हिरण से डरे शेर
डॉल्फिन से डरे सार्क
गौरैया से डरे बाज

उलट दो सबकुछ
इसलिए कि उलटे हैं हुक्मरान
और उलटी है उनकी बनाई दुनिया

Monday, August 4, 2008

संविधान ... एक साज़िश

संविधान...
चंद पन्नों पर दर्ज, चंद शब्द नहीं
बड़ी बारीक और गहरी साज़िश है
होती है हर रोज़ नाइंसाफ़ी
लाखों... करोड़ों इंसानों के साथ
संविधान की आड़ में

जी हां, इसी संविधान की आड़ में
मुझ पर और आप पर करते हैं राज
कुछ मुट्ठी भर अपराधी
कुछ क़ातिल, कुछ बलात्कारी
कुछ रिश्वतख़ोर, कुछ ४२०
और कुछ देशद्रोही

ये संविधान न मेरा है
ना ही तुम्हारा, ना हमारा
ये उनका है, उनके लिए
उनके द्वारा बनाया हुआ
इसी संविधान के जरिये
उन्होंने ली है मंज़ूरी धोखे से
हमसे... हम पर शासन के लिए

Sunday, August 3, 2008

वो बड़ा धार्मिक है

धर्म हथियार है
किसी और हथियार से ज़्यादा घातक
वो यह हथियार चलाने में माहिर है
तभी तो है वो सदी का सबसे बड़ा विजेता
उसने धर्म के जरिये किये हैं नरसंहार
दी है बलि हजारों इंसानों की
वो सिर्फ़ सदी का सबसे बड़ा विजेता ही नहीं
सदी का सबसे बड़ा धर्मगुरु भी है

Saturday, August 2, 2008

भाग्य विधाता

वो भाग्य विधाता हैं मेरे और तुम्हारे
वो तय करते हैं मेरा और तुम्हारा भविष्य
मेरे और तुम्हारे पसीने की क़ीमत
मेरे और तुम्हारे लहू का मोल
एयरकंडिशन्ड दफ़्तर में बैठे
बिना एक बूंद पसीना बहाए

Friday, August 1, 2008

मैंने उसे देखा, ज़िंदगी के लिए लड़ते हुए

((इसरार ने दम तोड़ दिया. साथ ही एक और ज़िंदगी का अंत हो गया. बाप रो रहा है. मां खुद भी ज़ख़्मी है और बेटे की मौत ने उसके ज़ख़्मों को बढ़ा दिया है. इसरार की मौत कई सवालों का जवाब देती है. उन लोगों के मुंह पर कालिख पोतती है जो हिंसा के रास्ते सपनों को पूरा करना चाहते हैं. इसरार एक मुसलमान था और उसकी ज़िंदगी छीनने वाले वो मुसलमान हैं जिन्होंने अहमदाबाद और बेंगलौर में धमाके किये. ये उनके लिए सबक है कि हिंसा का कोई धर्म नहीं होता और हिंसा फैलाने वाले भी किसी धर्म के नहीं होते. वो तो नफ़रत की सियासत करते हैं और अपने कुतर्कों से अपने लिए उस हिंसा का आधार तलाशते हैं. ये कविता मैंने दो दिन पहले लिखी थी. इस पर अभी काम करना चाहता था. लेकिन इस बीच इसरार ने दम तोड़ दिया है. डॉक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया है. इसलिए इस आधी-अधूरी कविता को अभी चस्पा कर रहा हूं. पूरा करने के बाद फिर चस्पा करूंगा.))



मैंने उस मासूम को देखा
हर सांस लड़ते हुए ज़िंदगी के लिए
लेटा हुआ था वो खामोश...
खून से सने सफेद बिस्तर पर
आंखें बंद, चेहरा स्थिर
सांसें वेंटिलेटर के सहारे
तभी धड़कन कुछ अटकी
जिस्म में हलचल हुई
सिर पीछे तन गया
धड़ थोड़ा अकड़ गया
अजीब आवाजें आने लगीं
जैसे कुछ अटक गया हो गर्दन में
और निकाले नहीं निकल रहा
फिर एक तेज हिचकी आई
और सबकुछ शांत

दो दिन बीत चुके हैं
मेरे शहर में हुए धमाकों को
मगर नहीं है कोई सुधार
इस बच्चे की सेहत में
बाप है कि रोए जा रहा है
बेटा-बेटा चिल्लाए जा रहा है
बेटा कुछ सुने तो कहे
वो तो तार-तार
ज़िंदगी के सहारे
लड़ रहा है मृत्यु से

सिर्फ़ यही मासूम नहीं
लड़ कुछ और भी रहे हैं
सरकार से, मुल्क से
हमसे, आपसे और खुद से भी
कहते हैं ये धर्मयुद्ध है
इसी से कायम होगी हुकूमत खुदा की
खुलेगा द्वार जन्नत का
जीते तो सब उनका, मरे तो मिलेगी मुक्ति

मुक्ति किस चिड़िया का नाम है
धर्म युद्ध क्या है
जन्नत कैसी होती है
मैं ये नहीं जानता
बस जानता हूं तो इतना
बिस्तर पर लेटा बच्चा
मोहम्मद इसरार है
उम्र आठ साल
बाप मोहम्मद जलील
मां शुगरा बानो
जो खुद भी ज़ख़्मी है
मगर अपने ज़ख़्मों से ज़्यादा
चिंता है बेटे की

पूछने पर मां बताती है
डरावनी शाम का ब्योरा देती है
उसे याद है, अच्छी तरह
रिक्शे पर सवार बेटे संग लौट रही थी घर
तभी जोरदार आवाज आई
कोई भारी चीज सिर पर लगी
वो चोट सह गई
बच्चा सह ना सका
चेहरे पर दर्द लिये
गिर गया कटे वृक्ष सा
सड़क पर खिंच गई
लहू की पतली लकीर
मगर धड़कन जिंदा थीं
कुछ लोग उठा कर
मां-बेटे को अस्पताल पहुंचा गये
वो हिंदू थे या मुसलमान
मुझे नहीं मालूम
कमबख़्त डॉक्टर भी
ना में सिर हिलाता है
मगर पूछने पर
बताता है अपना नाम अशोक
वो ये भी बताता है
अस्पताल के हर कोने में
घात लगाए बैठा है यम
भर्ती हैं कई और इसरार
हर कहीं चल रहा है
संघर्ष सांसों का

संघर्ष सत्ता के गलियारे में भी है
और क्या खूब है सियासतदान
ज़िंदगी तो ज़िंदगी
वो मौत बेचने के फन में भी माहिर हैं
धमाकों के बाद से
बढ़ गई पूछ मेरे शहर की
जारी है सिलसिला
नेता के आने-जाने का
दक्षिणपंथी भी आए
वामपंथी भी आए
समाजवादी भी आए
पूंजीवादी भी आए
और वो भी आए
जो खुद को बताते हैं बीच का
मतलब कहीं नहीं और हर जगह
कोई नहीं और हर कोई
साथ ही जारी हैं विरोध प्रदर्शन
कहीं दादागीरी, कहीं गांधीगीरी

हमने देखा है पहले भी, कई बार
देखेंगे आगे भी, हर बार
ये सबकुछ वैसा ही है
जैसे हमारे हुक्मरान हर साल
चमकती उजली लिबास में
चमचमाती महंगी कार में
चढ़ा आते हैं दो अक्टूबर को
बापू की समाधि पर दो फूल
वैसे ही हर धमाके के बाद
बहा आते हैं आंसू के दो बूंद
मृतकों के नाम पर
फिर इंतज़ार अगले धमाके का
आखिर धमाकों के बगैर
चलेगी कैसे सियासत नफ़रत की

इसरार और उस जैसों का क्या
उनके हिस्से तो ज़ख़्म हैं
उन्हें तो हर रोज मरना है, जीना है
ज़ख़्मों के सहारे सिसकते हुए, तड़पते हुए

Monday, July 28, 2008

मैं मिट्टी से बना हूं, मिट्टी में मिल जाऊंगा

((मिट्टी की महक मुझे पागल बना देती है। मैंने सपने बहुत देखे हैं, लेकिन मेरा हर सपना मुझे गांव की ओर खींचता है। ये सपने मुझसे कहते हैं कि “समर, तुम्हारी ज़िंदगी शहर में अधूरी है। तुम्हें तो जल्द से जल्द गांव लौट जाना चाहिये। खाली पड़ी ज़मीन पर बगीचे लगाने चाहिये. देखो अब तो बगीचे लगाने का चलन भी ख़त्म हो गया है और बिना बगीचों के गांव सांय-सांय, भांय-भांय करते हैं. लगता है कि धरती से उसके वस्त्र छीन लिये गए हैं”. मेरे सपने मुझसे कहते हैं कि “तुम एक मिट्टी का घर बनाओ... बांस और फूस के मचान बनाओ... गाय रखो, भैंस रखो, कुछ ऐसा करो ताकी तुम्हारी ज़िंदगी में शांति हो.... इतना तनाव क्यों लिये रहते हो ... शायद इसलिए कि शहर के ऊंचे मकान और दफ़्तर ने तुम्हें धरा से दूर कर दिया है. कोशिश करो कि एक बार फिर धरा के करीब। यही धरा तो तुम्हारी जननी और यही धरा तुम्हारा सबकुछ है”। आज मेरे उन तमाम सपनों और इस धरा को समर्पित एक कविता। शायद आपको ये पसंद आए... नहीं आए तो भी टिप्पणी ज़रूर करियेगा. उनसे बहुत कुछ सीखने को मिलता है.))

मैं मिट्टी से बना हूं
महसूस करता हूं
धरती का एक टुकड़ा
अपने भीतर, हर पल
कुछ रेत, कुछ कीचड़
कुछ करैली, कुछ दोमट
इसलिए शायद
मुझे पसंद है मिट्टी

याद है आज भी
बचपन के वो दिन
गर्मी की वो सुबहें
नदी किनारे जाना
साबुन की जगह
देह में मलना
काली मिट्टी
बेझिझक रगड़ना
चेहरे पर
इसलिए शायद
मुझे पसंद है मिट्टी

मुझे याद है आज भी
बरसात के वो दिन
लोटना साथियों संग
गांव की परती में
मिट्टी बन बिछ जाना
मिट्टी में
इसलिए शायद
मुझे पसंद है मिट्टी

मुझे याद है आज भी
मिट्टी से जुड़े वो खेल
वो ओल्हा पाती
वो राजा-रानी कबड्डी
वो चीका, वो कोइना
वो गोली, वो गिल्ली डंडा
मेरी तमाम सुनहरी यादों में
बसी है महक मिट्टी की
इसलिए शायद
मुझे पसंद है मिट्टी

मुझे याद है आज भी
जब पकता था खाना
मिट्टी के चूल्हे में
भूनते थे दाना
मिट्टी की भरसाईं में
हर दाने में आती थी
महक मिट्टी की
इसलिए शायद
मुझे पसंद है मिट्टी

आज भी जब तपती धरा पर
गगन से बूंदे पड़ती हैं
घुल जाती है
मिट्टी की गंध हवा में
और मैं खुद ब खुद
बाहर चला आता हूं
बंद कमरे से
तेज-तेज सांसें खींचता हूं
ये सोच कि हवा के साथ
थोड़ी और समाएगी
मिट्टी की महक मेरी रूह में
क्योंकि मिट्टी मुझे पसंद है

मिट्टी मुझे बहुत पसंद है
क्योंकि मैं जानता हूं
भले ही मुझमें अंश है
क्षिति, जल, अग्नि,
वायु और आकाश का
मगर साकार रूप में
बसी है सिर्फ़ मिट्टी
और एक दिन सारे बंधन तोड़
मिल जाना है मुझे
इसी मिट्टी में.

Sunday, July 27, 2008

वो खिल ना सकी

((हम एक ख़तरनाक दौर में जी रहे हैं. ऐसे ख़तरनाक दौर में जहां कुछ भी हो सकता है. किसी के साथ ... कभी भी ... कहीं भी. ये उसी ख़तरनाक दौर की निशानी है कि १४-१५ साल की उम्र में बच्चे क़ातिल बन जाते हैं ... और मासूम बच्चियों को क़त्ल कर दिया जाता है. ये वो दौर है जहां बच्चे वक़्त से पहले बड़े हो जाते हैं. लगता है कि बचपन कहीं गुम हो गया है. ये कविता कुछ महीने पुरानी है. इन्हें आज चस्पा कर रहा हूं. आपकी आलोचनाओं का इंतज़ार रहेगा.))

उसे खिलना था
मुस्कुराना था
हवा में लहराना था
नरम, मुलायम पंखुड़ियों पर
ओस की नमी मसहूस करनी थी
फिजा को महकाना था
भंवरों को खींचना था
मुझे और आपको रुहानी सुकून देना था
न जाने कितनी उदास ज़िंदगियों में
न जाने कितने चटख रंग भरने थे
अचानक आंधी आई
कली ही नहीं
पौधा उखड़ गया
एक जानवर तेजी से दौड़ता
रौंद कर गुजर गया.

मिट रहे हैं गांव

((गांव काफी बदल गए हैं. अब वो पहले जैसे नहीं रहे. वहां सामूहिकता का जो थोड़ा-बहुत भाव था अब वो ख़त्म हो गया है. मुझे याद है कि होलिका दहन के वक़्त हम लोग दूसरों के घरों से गोइंठा, लकड़ी जो कुछ मिलता चुरा लाते थे. उस घर के बड़ों को ये बात पता चलती तो भी तो कुछ नहीं कहते. आज ऐसा करने पर झगड़ा शुरू हो जाएगा. यही नहीं गांवों में भी शांति नहीं है. हाल ही में मैं गांव गया था. काफी झटका लगा. दिन भर लाउडस्पीकर का शोर कान के पर्दों को चीरता रहा. मोबाइल की घंटी वहां भी पीछा नहीं छोड़ती. शहर जितना भले ही नहीं हो, गाड़ियों का शोर वहां भी है. उसी पर पेश हैं चंद लाइनें. शायद आपको पसंद आएं. नहीं भी आए तो भी टिप्पणी जरूर करियेगा. कुछ सीखने को मिलेगा.))


मेरा गांव
गांव नहीं रहा
शहर बन गया है
रास्ते कंकरीट के
मकान कंकरीट के
और अब इंसान भी
कंकरीट के हैं
सिर्फ़ खेत ही शेष हैं
जो हल्का सा ही सही
आभास कराते हैं गांव का
मगर मालूम है मुझे
ज़ल्द आएगा वो दिन
जब हरे भरे खेतों में
लहलहाएगी फसल कंकरीट की

Saturday, July 26, 2008

ज़िंदगी

कौन कहता है हसीन है ज़िंदगी
बहुत बदसूरत, बंदरंग है ज़िंदगी
कसैली सी कड़वी है
कांटों सी चुभन भरी
गांव हो या शहर
झुंझलाहट, चिड़चिड़ाहट
नफ़रत, गुस्सा
हताशा, निराशा से भरी है ज़िंदगी
बोझिल शाम सी
उदास सुबह सी
उमस भरे दिन सी
चिलचिलाती दोपहर सी ज़िंदगी
हर सुबह अलार्म का शोर
कॉल बेल की टन टन
मोबाइल की ट्रिन ट्रिन
गाड़ियों की चिल्ल पों
ट्रैफिक जाम सी है ज़िंदगी
मैं पीछा छूड़ाना चाहता हूं
बहुत दूर जाना चाहता हूं
लेकिन कुछ कुछ दलदल सी है ज़िंदगी
मैं धंस रहा हूं
बचाओ बचाओ चिल्ला रहा हूं
जाल में फंसे परिंदे सा
फड़फड़ा रहा हूं
बहुत क्रूर शिकारी सी है ज़िंदगी
मेरी बेबसी पर हंसती है ज़िंदगी

Friday, July 25, 2008

शब्दों का सफ़र

शब्द भी सफ़र पर हैं
अंतहीन सफ़र पर
थकते हैं
बीच राह में
सुस्ताते हैं
बतियाते हैं
रुकना मना है
रुके तो एक झटके में
सब ख़त्म.

वो हौसला जुटाते हैं
आगे बढ़ जाते हैं
अपनी नियति
अपनी मंजिल की ओर.

ये सफ़र बेहद लंबा है
थकान भरा
उबाऊ भी
कहीं खाई
कहीं पर्वत
कहीं नदी
कहीं दलदल
कहीं रेगिस्तान
आंधियां भी कम नहीं
तूफ़ान बहुतेरे हैं
फिर भी उम्मीद की डोर थामे
बढ़ते जाना है.
उम्मीद कि कोई लेखक
उन्हें उठाएगा
झाड़ पोंछ
धागे में पिरो
ज़िंदगी में
रोमांच भर देगा
नए मायने दे देगा.

सफ़र में कुछ शब्द
गुम हो जाते हैं
लोग उन्हें दुत्कार देते हैं
जैसे लावारिस अनाथ बच्चा
जैसे गली का कोई कुत्ता
नहीं, वो भी नहीं
जैसे कोई टिशू पेपर
इस्तेमाल के बाद
फेंक दिया जाता है
डस्टबीन में.

ज़्यादती वहां भी है
ज़ुल्म वहां भी है
धोखा भी कम नहीं
कुछ अच्छे शब्द
बदनाम किये जाते हैं
तरसते रहते हैं
इंतज़ार करते हैं
कभी, तो कोई
सम्मान देगा
लेकिन कुछ नीच शब्द
सम्मान पा जाते हैं

दलाल को ही लीजिये
बीते जमाने की ये गाली
आज सम्मानित है
बिन दलाल काम नहीं चलता
कहीं झोपड़ी डालनी हो
मकान खरीदना हो
कंपनियों का सौदा हो
हथियारों का
जिस्म का
ईमान का
कोई भी सौदा हो
दलाल हर जगह हाजिर है
लहू में घुले नमक की तरह

हमने दलाल की महिमा देखी है
एक-दो बार नहीं कई बार
ये चाहे तो रंक को राजा बना दें
और राजा को रंक

आज शहर में
दलाल स्ट्रीट है
कल दलाल राज्य होगा
परसों दलाल देश

Wednesday, July 16, 2008

आड़े वक़्त के लिए ही सही मुझे साथ रहने दो

(( कुछ चीजें आप हमेशा साथ रखते हैं. न चाहते हुए भी. हर बार मकान बदलते वक़्त लगता है कि उसे वहीं छोड़ दें, लेकिन ना जाने क्यों फिर आप उसे उठा कर ट्रक में लाद देते हैं और नए मकान में ले जाते हैं. ऐसा मेरे साथ भी खूब होता है. बहुत सी चीजें घर में पड़ी हैं जिनकी अब कोई आवश्यकता नहीं. लेकिन मैं उन्हें फेंक भी नहीं पाता. ऐसी ही एक मेज है... लकड़ी की, जो हाथ रखने पर एक और झुक जाती है. लेकिन मुझे उस मेज से मोह है या कहें कि इश्क कि वो मेज मैं फेंक नहीं पाता. उसी को समर्पित ये चंद लाइनें. शायद आपको पसंद आएं. अगर पसंद ना आएं तो जाहिर जरूर करियेगा.)) ...


मेरे ड्राइंग रूम के कोने में वो मेज पड़ी है
मखमल में टाट के पैबंद की तरह
एक वक़्त था जब इसके सिवाय
मेरे पर कुछ खास नहीं था
बस थी एक चटाई
और एक स्टोव
और कुछ बर्तन
चटाई तो कब की खर्च हो गई
और मुझे याद है
एक बार तनख़्वाह देर से मिली
पैसे की सख़्त जरूरत थी
तो रद्दी के साथ स्टोव भी बिक गई
बर्तन नए बर्तनों में खप गए
गाहे-बगाहे आज भी वो मेरे हाथ आते हैं
मगर इस मेज जैसे खटकते नहीं
ड्राइंग रूम के कोने में पड़ी ये जर्जर मेज
याद दिलाती है मुझे मेरी उम्र
हर पल बताती है कि
ज़िंदगी का आखिरी पड़ाव है
इससे ज्यादा मोह ठीक नहीं
मैंने झुंझलाहट में कई बार
मेज से पीछा छुड़ाने की कोशिश की
लेकिन हर बार जैसे वो जिंदा हो जाती
कहती अभी तुम खुशहाल हो तो
इस खुशहाली में मेरा हिस्सा है
मैं तुमसे वो हिस्सा नहीं मांग रही
बस मुझे साथ रहने दो
देखो दुनिया बहुत तेजी से बदल रही है
यहां किसी की कोई गारंटी नहीं
जिन बच्चों पर तुम्हें नाज है
हो सकता है वो भी साथ छोड़ दें
मगर मैंने हमेशा तुम्हारा साथ दिया है
आड़े वक़्त में एक फिर आजमाने के लिए ही सही
मुझे साथ रहने दो.

चलती फिरती कब्र सा

(( बचपन में पढ़ते थे those who dream the most do the most. थोड़ा बड़े हुए तो पता चला कि सिर्फ सपने देखने से काम नहीं चलता उन्हें पूरा करने के लिए जोखिम भी उठना पड़ता है. वक़्त के विपरीत चलना पड़ता है. मैं ऐसा नहीं कर सका. मेरे सपने ... एक के बाद एक, दम तोड़ते गए. वो आज भी सोते जागते मेरे सामने आ जाते हैं.. मुझसे कहते हैं कि मैंने उनसे विश्वासघात किया है. मैं बेचैन हो उठता हूं और आज मेरे पास सपने नहीं, ऐसी ही बेचैनियां हैं.)) ....

पाश ने सच कहा था
बहुत ख़तरनाक होता है सपनों का मर जाना
मैंने भी इसे महसूस किया है
सपनों के मरने से ज्यादा ख़तरनाक कुछ नहीं
सपने मरते हैं तो
मरता है भीतर का इंसान आहिस्ता आहिस्ता
आज मेरे एक और सपने ने दम तोड़ा है
और मैं डोल रहा हूं
चलती फिरती कब्र की तरह.

Tuesday, July 15, 2008

मैं खामोश हूं धरती की तरह

((खामोशी पर बहुत कुछ लिखा गया है. मैंने भी थोड़े थोड़े अंतराल पर कुछ लिखने की कोशिश की. अपनी एक कोशिश मैंने आप लोगों के सामने कल पेश की थी. दूसरी कोशिश आज पेश कर रहा हूं. सीखने का क्रम है इसलिए चाहता हूं कि आप इस पर अपनी राय दें. दिल खोल कर बताएं कि कहां चूक रह गई और कैसे इन्हें बेहतर बनाया जा सकता है. ))...

मैं खामोश हूं
क्योंकि मेरा हृदय विशाल है
मैं खामोश हूं
क्योंकि मैं सह सकता हूं
मैं खामोश हूं
क्योंकि मेरा चुप रहने का मन है
मैं खामोश हूं
क्योंकि मैं खामोशी की जुबां समझता हूं
मैं खामोश हूं
क्योंकि खामोशी मेरी ताकत है
मैं खामोश हूं
क्योंकि मुझे सही वक़्त का इंतज़ार है
तुम मेरी खामोशी को
बुजदिली मत समझना
एक दिन आएगा जब तुम्हारे जुल्म सहते-सहते
मैं फट पड़ूंगा
धरती की कोख में
सदियों से पल रहे ज्वालामुखी की तरह
तब मेरा धधकता लावा
सकुछ जला कर राख कर देगा
तुम्हारी सल्तनत, तुम्हारी सेना,
तुम्हारी संसद, तुम्हारी अदालत
यहां तक कि तुम्हारा वजूद भी मिटा देगा

मेरी खामोशी मेरा हथियार है

वो मेरे चुप रहने की वजह पूछते हैं
मेरी खामोशी को बुजदिली समझते हैं
कहते हैं मैं ना बोला तो
जमाना मांगेगा हिसाब
आज नहीं कल मेरे अपने भी
मुझसे मांगेंगे जवाब
लेकिन मैं तमाम उकसावों पर भी
कुछ ना बोलूंगा
ऐसा नहीं मेरे पास कहने को कुछ नहीं
कहने को बहुत कुछ होते हुए भी लब ना खोलूंगा
अभी लोगों के पास सुनने को वक़्त ही कहां है
लोग तो हिसाब चुकाने को बदहवास हैं
कुछ ज़िंदगी से, कुछ हालात से
कुछ दुश्मनों से, कुछ अपनों से
ये दौर पागलपन का दौर है
इस दौर में मैंने कुछ कहा तो
उसके मायने भी गलत निकाले जाएंगे
सच और झूठ की कसौटी पर नहीं
मेरे शब्द, राम और रहीम की कसौटी पर कसे जाएंगे
इसलिए अभी मैं खामोश ही रहूंगा
मेरी खामोशी को मौन समर्थन मत समझना
मेरी ये खामोशी, मेरा प्रतिरोध है और मेरा हथियार भी

Sunday, July 13, 2008

इंसान तब ज़्यादा हमले करता है जब पेट भरा हो

((अक्सर लोग गुस्से में कहते हैं कि इंसान जानवर बन गया है. लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता. जानवर प्रकृति की तरह मौलिक हैं. उसकी हरकतें और भाव सब मौलिक होते हैं. प्रकृति के करीब भी. जबकि विकास के नित नए मुकाम बनाने वाला इंसान मौलिक नहीं रहा. वो अर्टिफिशियल हो गया है. शायद यही वजह है कि इसमें गंदगी ज्यादा है... जानवरों से कहीं ज्यादा.)) .........

जानवर हमला करते हैं
जब भूखे हों या फिर ख़तरे में
इंसान इन दोनों हालात में
हमला तो करता ही है
लेकिन उससे कहीं ज्यादा
बेशर्म तरीके से वार करता है
जब पेट भरा हो

इतिहास में झांक देखा है
इंसानी साज़िशों को
साज़िशें उन लोगों ने रचीं
जिनके पेट भरे थे
बीते समय के किसी महानायक को लीजिये
अशोक, अकबर, सिंकदर या नेपोलियन
बस चेहरे बदलते हैं
जगह, घटनाचक्र बदलता है
हक़ीक़त नहीं

इन्होंने जब युद्ध लड़े तब इनमें
कोई भूखा नहीं था, ना ही ख़तरे में
ये सभी दूसरों का लहू बहा
दुनिया जीतना चाहते थे
रियाया की देह चुनवा
महत्वाकांक्षाओं का महल सजाना चाहते थे.

इन ताकतवर लोगों को
इससे फर्क नहीं पड़ता कि युद्ध से
हजारों घर उजड़ते हैं
इससे भी नहीं कि
सिपाही एक बार मरता है
उसकी बेवा हर रोज मरती है
बच्चे बाप के लिए हर रोज तरसते हैं

ऐसा नहीं कि लोकतांत्रिक अवधारणाएं मजबूत हुईं
तो क्रूर इंसानी फितरत ख़त्म हो गई
मेरे दोस्त, सच यही है
युद्ध आज भी लड़े जाते हैं
पहले से कहीं ज्यादा विभत्स
कहीं ज्यादा बड़े पैमाने पर

साज़िशें आज भी रची जाती हैं
पहले से कहीं ज्यादा घिनौनी
यकीन न हो तो दुनिया के नक्शे को देखना
बीते सदी में दुनिया बहुत बदली है
हर कहीं मिट्टी रक्त से सनी है.
हमारे-आपके जैसे इंसान क्या
कई देश टूटकर बिखरे हैं

सिर्फ युद्ध ही नहीं
सम्पन्न लोगों की साज़िशें और भी हैं
आप चाहे किसी देश में हो
चाहे किसी शहर, किसी गली, किसी नुक्कड़ पर हों
साजिश के शिकार बन सकते हैं

कभी कभी तो लगता है कि
संसद, अदालत और संविधान
ताकतवर लोगों की सबसे बड़ी साज़िशें हैं
मैं इन्हें जीने को अभिशप्त हूं
मगरमच्छ के मजबूत जबड़े में फंसे
शिकार की तरह छटपटाता हूं
सांस घुटती है, दिल रोता है
कुछ ना कर पाने की लाचारी
निराशा को जन्म देती है
ज़िंदगी मुट्ठी में बंद रेत सी खिसकती जाती है

इसलिए मेरे दोस्त,
नाराज होने पर भी
कभी ये मत कहना कि
इंसान जानवर बन गया है
क्योंकि जानवर तब हमला नहीं करते
जब उनका पेट भरा हो
जबकि इंसान तब ज्यादा बेशर्म वार करता है
जब उसके पास सबकुछ हो.

Saturday, July 12, 2008

क्या शहर में परिंदे भी बदल जाते हैं


शहर आकर क्या झुंड में उड़ने वाले
परिंदे भी बदल जाते हैं
ठीक वैसे ही जैसे इंसान
बदलता है भूखे भेड़िये में
क्या वो साथ उड़ने की जगह
उड़ने लगते हैं अकले
क्या उनमें भी दूसरों को रौंद
आगे बढ़ने की हवस पैदा हो जाती है
क्या वो भी जरूरत से ज़्यादा
जमा करने की चक्कर में
दूसरों का हक़ मारते हैं
क्या वो भी आसमान बांटते हैं
जैसे हमने बांट दी है जमीन
अगर हां, तो ये शहर
बहुत गंदा और विभत्स है
इस शहर को मिटा दो
अगर नहीं, तो चरित्र और चेहरा
बदलना इंसानी फितरत है
जरा गौर से सोचिये
आपका जवाब हां है या नहीं
मेरा जवाब है नहीं
मैंने इसे करीब से महसूस किया है
इंसान से ज़्यादा ख़तरनाक
धरती पर कोई और नहीं.

Friday, July 11, 2008

शेष रह जाएंगे पछतावे के आंसू

मैंने उस शिकारी को देखा है
करीब से, बहुत करीब से
सफेद लिबास में वो हमारे बीच रहता है
हमारा ही शिकार करने के मकसद से

वो शिकारी भेड़िये की तरह धुर्त है, क्रूर भी
लहू बहाना उसका शौक है, पेशा भी
मौका मिलते ही वो घातक वार करता है
जिस्म के किसी कमजोर हिस्से पर
ताकि हम उठ ना सकें, प्रतिरोध कर ना सकें

बीते वक़्त में हमने झेले हैं उसके वार
एक-दो बार नहीं हजार बार
कभी पीठ पर तो कभी गर्दन पर
हर बार मिले हैं गहरे जख़्म
जो सालते रहते हैं सदियों तक
पेट में पल रहे अल्सर की तरह

पहले ही कह चुका हूं कि वो बहुत धुर्त है
इतना कि हमले के बाद खुद सामने नहीं आता
आगे कर देता है हमारे जैसे ही चंद लोगों को
हमलावर बता कर, शिकार बनने के लिए

बदला लेने की हवस में
हम एक दूसरे का लहू बहाते हैं
गुजरात में हमने ऐसा ही किया
भागलपुर और मुंबई में भी यही हुआ
हम इंसान से जानवर बने
वो दूर, बहुत दूर बैठ
मुस्कुराता रहा, तमाशा देखता रहा
हिंसा का लुत्फ़ उठाता रहा
एक रक्त पिपाशु की तरह
बहते लहू को देख ठहाका लगता रहा

साज़िश यहीं ख़त्म नहीं होती
अभी आखिरी अध्याय बाकी है
कहीं ज़्यादा ख़तरनाक
कहीं ज़्यादा विभत्स

अब वो शिकारी चोला बदलता है
हमारे बीच आता है हमदर्द की तरह
कहता है तुम मुझे वोट
मैं तुम्हें इंसाफ़ दूंगा
हम फिर धोखा खाते हैं
धोखा खाना हमारी फ़ितरत है
हम अपने ही क़ातिल को
अपना हुक्मरान बनाते हैं

एक बार फिर उस शिकारी ने
साज़िश का जाल बुना है
मेरा शहर जल उठा है
मैं तुम्हें आगाह करता हूं
जो जिसकी इबादत करता है
उसी के नाम पर
हो सके तो अपने शहर को
जलने से बचा लो
वरना तुम्हारे हिस्से भी
मेरी तरह आंसू आएंगे
पछतावे के आंसू
जो ना चैन से जीने देते हैं
ना चैन से मरने.

Thursday, July 10, 2008

बड़ा हूं फिर भी रोता हूं

बचपन में आंसू ही मेरे शब्द थे
जब भी भूख लगती
आंसू छलक आते
कोई समझे या नहीं समझे
मां समझ लेती
कि बेटा भूखा है

थोड़ा बड़ा हुआ तो आंसू
मेरे हथियार बन गए
जब भी दिल को ठेस पहुंचती
या कोई मांग मनवानी होती
मैं चीख-चीख रोने लगता
आंसू बहाने लगता
मांगें पूरी हो जातीं

अब मैं बड़ा हो गया हूं
आंसू मेरे लिए शर्म हैं
दर्द ज्यादा क्यों ना हो
जख्म गहरा क्यों ना हो
दूसरों के सामने
आंसू नहीं छलकते
रोने पर शर्म महसूस होती है

लेकिन मेरे आंसुओं ने
मुझे धोखा कभी नहीं दिया
वो हमेशा साथ रहे
पलकों के भीतर छिप कर...
बहने के लिए सही वक़्त के इंतज़ार में

और जब मैं अकेला होता हूं
आंखें डबडबा जातीं हैं
आंसू छलक आते हैं
पलकों की क़ैद से मुक्त
गालों पर निर्मल गंगा बहने लगती है
दर्द का हिमालय पिघल जाता है
मैं हल्का महसूस करता हूं
हौसले से भरा हुआ भी
मेरे आंसू सिर्फ
मेरी शर्म ही नहीं
मेरी ताकत भी हैं
इसलिए अब भी रोता हूं
मगर बंद कमरे में और कभी कभी
क्योंकि मैं जानता हूं बात-बात पर
ताकत का इजहार बुजदिली है

Tuesday, July 8, 2008

मेरे भीतर कुछ मर गया


मेरा देश एक है
आसमान में गरजते बादल की तरह
जो धरती पर गिरते वक़्त
बूंदों में बंट जाता है
एक दो नहीं बल्कि असंख्य
थोड़ी देर बाद वही बूंदे
फिर एक तो होती हैं
लेकिन बहुत कुछ खोकर

मेरा देश एक है
समंदर से उठती लहरों की तरह
जो किनारे बढ़ते वक़्त
एक दूसरे को मिटाती चलती हैं
इस क्रम में
उनका अपना वजूद भी मिटता जाता है

मेरा देश एक है
छोटे-बड़े, आड़े-तिरछे
हजारों टुकड़ों में बंटा
ठीक उसी तरह
जैसे मेरे भीतर एक नहीं
कई इंसान पलते हैं
कुछ उदार तो कुछ क्रूर... बेहद क्रूर

सब अपनी कुंठाओं को समेटे
हर वक़्त लड़ते रहते हैं
जरा-जरा सी बात पर
कभी-कभी भीतर मचा
घमासान बहुत घातक होता है
बीती शाम जब मेरे शहर से
दंगे की ख़बर आई
तो मेरे भीतर फिर घातक युद्ध छिड़ा
धार्मिक और सांप्रदायिक टुकड़ों के बीच

सिर दर्द से फटने लगा
जिस्म ने आदेश मानने से इनकार कर दिया
लगा भीतरघात से
किसी इंसान ने दम तोड़ दिया है
दूसरा जीत का जश्न मनाना चाहता है
मनाए भी तो कैसे
मैं तो एक हूं और मुझे
शोक के साथ जश्न मनाना नहीं आता
मैं दुर्योधन भी नहीं
और मुझे मृत्यु की प्रतीक्षा भी नहीं है

आज मेरे देश की हालत
ठीक मेरी तरह है
क्योंकि वो भी मेरी तरह
कई टुकड़ों में बंटा है
और उन टुकड़ों में घमासान मचा है

Sunday, July 6, 2008

इंसान या सामान...



यूं ही राह चलते
उस पर मेरी नज़र पड़ी
आंखें धंसी हुईं
सूनी, उदास और पीली
बाल उलझे हुए
जिस्म हड्डियों का ढांचा मात्र
और हड्डियां इतनी कमजोर कि
हवा हो चुके जिस्म का भार भी उठा न सकें
वो इंडिया गेट के ठीक सामने
फुटपाथ पर किसी
गठरी सी बैठी थी
जैसे किसी ने
मैले फटे हुए कपड़े में
कोई सामान बांध
छोड़ दिया हो
इस बेफिक्री में कि
वो सामान किसी काम का नहीं

Saturday, July 5, 2008

मैं सिर झुकाए खड़ा हूं, मुझे भी क़त्ल करो


ऐसे ख़त्म नहीं होगी दुश्मनी
चंद जगहों पर
चंद विधर्मियों के क़त्ल से
कायम नहीं होगा धर्मराज
मारना है तो सभी को मारना होगा
सिर्फ मेरे शहर में ही नहीं
बल्कि पूरे भारत में
सिर्फ भारत में ही नहीं
बल्कि पूरी दुनिया में
उन तमाम लोगों को
जो हिंदू नहीं हैं
उन लोगों को भी
जिनकी नस्ल अलग है
और आखिर में तुम्हारे सामने होंगे
मुझ जैसे लाखों करोड़ों लोग
जो भले ही तुम्हारे धर्म के हैं
लेकिन तुम्हारे विरुद्ध खड़े हैं
हाथों में तलवार और तमंचे लिये नहीं
बल्कि तुम्हारी करतूत पर
शर्म से सिर झुकाए
तुम्हारी तलवार के वार से
क़त्ल होने के लिए.

Thursday, July 3, 2008

रोटी और भूख

रोटी गोल हो
या हो चौकोर
अधपकी हो
या हो पूरी पकी हुई
स्वाद बनाने वाले हाथों के साथ
भूख भी तय करती है
पेट खाली हो
आंतें धंसी हुई हों
तो चौकोर, तिकोनी, कच्ची, अधजली
रोटी भी स्वादिष्ट लगने लगती है
और
इससे भी फर्क नहीं पड़ता
कि उस रोटी के साथ ईमान
जुड़ा है या नहीं

Wednesday, July 2, 2008

ज़िंदगी है ये लाल रंग

लाल रंग मुझे बहुत पसंद है
इसलिए कि
सुबह की पहली किरण हो
या शाम की आखिरी किरण
उगते और डूबते
दोनों ही मौकों पर सूरज का रंग
लाल होता है
ये लाल रंग मुझे बहुत पसंद है
इसलिए कि जब धरती आहत होती है
और उसकी गर्भ से लावा आंसू बनकर निकलता है
तो उसका रंग भी लाल होता है
इसलिए कि
जब कोई तारा फूटता है
तो ब्राम्हांड में विलीन होने से पहले
उसका रंग भी लाल होता है
इसलिए कि
लाल लपटों में
समाने के बाद ही इंसानी
जिस्म से आत्मा मुक्त होती है
इसलिए कि
इंसानी चमड़ी
भूरी हो या काली
या फिर सफेद
इस चमड़ी के भीतर रगों में बहने
वाला लहू लाल है
ये लाल रंग मुझे बहुत पसंद है
इसलिए कि
चाहे ग़म हो या खुशी
ये रंग मेरे बेहद करीब है
किसी और रंग से कहीं ज्यादा
किसी और रंग से कहीं गहरे।

Tuesday, July 1, 2008

मौत की चिंता क्यों?

मृत्यु क्या है?
सांसों का रुकना
दिल का थमना
या फिर
दिमाग का शून्य होना
आखिर मृत्यु क्या है?
कभी कभी
ये सवाल जेहन में उठता है
अचानक बहुत अचानक
मस्तिष्क की दीवारों से टकरा कर
कौंधता है
तेज बहुत तेज
लगता है नसें फट जाएंगी
जिस्म सुन्न पड़ जाएगा
किसी भी वक़्त
कलेजा मुंह से बाहर आ जाएगा
सांस थम जाएगी
धड़कन बंद हो जाएगी
और मैं मर जाऊंगा
लेकिन ऐसा कुछ नहीं होता है
चंद पलों के भीतर
सबकुछ सामान्य हो जाता है
पहले की तरह शांत ...
फिर भीतर से
धीमी
दबी कुचली
निस्तेज
निस्प्राण
एक ही आवाज़ आती है
मृत्यु चेतना शून्य होना है
सच और गलत का भेद भूल कर
भौतिक सुखों में लिप्त होना है
और
तुम काफी पहले मर चुके हो
फिर तुम्हें मौत की चिंता क्यों?

मैं ज़िंदा रहना चाहता हूं

मैं ज़िंदा रहना चाहता हूं
हर सांस ज़िंदगी जीना चाहता हूं
जैसे धरती पर फसल लहलहाती है
जैसे सुबह की धूप खिलती है
जैसे आसमान पर बादल घुमड़ते हैं
जैसे ऊंचे पर्वत से नदी निकलती है
जैसे समंदर में सुनामी लहरें उठती हैं
जैसे हजारों मीटर नीचे टैक्टोनिक प्लेट टकराती हैं
जैसे लावा धरती को फाड़ कर आसमान में उठता
ठीक वैसे ही मैं ज़िंदा रहना चाहता हूं
बिना किसी रोकटोक
बिना किसी हील हुज्जत
बिना किसी द्वंद
प्रकृति की उन तमाम हलचलों की तरह
उन तमाम रचनाओं की तरह
मैं हर सांस ज़िंदगी जीना चाहता हूं
जिन पर इंसान का बस नहीं है

Friday, June 20, 2008

कहीं मेरा हिस्सा तो नहीं मारा

कल मैं कनॉट प्लेस में घूम रहा था
शूट बूट पहने
एन ९२ हाथ में लिये
दोस्त से बतिया रहा था
तभी एक भीखमंगा सामने आ गया
मेरा रास्ता रोक कर खड़ा हो गया
मैंने बचने की बहुत कोशिश की
लेकिन जैसे वो मुझे दबोच लेना चाहता था
फिर मैं भी रुक गया
पूछा भाई क्या बात है
ऐसे रास्ता रोक क्यों खड़े
लगता है कुछ ठान कर आए हो
किसी जिद पर अड़े हो
जवाब में उसने कहा मुझे तुमसे कुछ नहीं चाहिये
बस एक सवाल का जवाब दे दो
तुम शूट बूट पहने हो
मैं फटे हाल हूं
तुम मोबाइल लिये हो
मेरे हाथ में कटोरा है
तुम्हारे पास गाड़ी है
मेरा पास चप्पल तक नहीं
मैं भी इंसान हूं
इसी देश का नागरिक हूं
तुम्हारी तरह मेरे भी कुछ अधिकार हैं
फिर मैं कंगाल तुम खुशहाल क्यों
सच सच बोलना
झूठ मत कहना
मुझे झूठ से नफरत है
कहीं तुमने मेरा हिस्सा तो नहीं मार लिया।

ये शांति काल है

जब युद्ध नहीं होते हैं
उसे शांति काल कहा जाता है
भारत में अभी शांति है
हर रोज क़त्ल की ख़बरें आती हैं
हर शहर में लड़की की चीख सुनी जाती है
दहेज की खातिर महिला मारी जाती है
चंद रुपयों के लिए बच्चा अगवा होता है
अख़बारों के पन्ने अपराधों से भरे जाते हैं
काले शब्दों में लाल खून के छींटे नज़र आते हैं
फिर भी भारत में शांति है
हर रोज लाखों बच्चे भूख से बिलबिलाते हैं
धीमे धीमे मौत की तरफ कदम बढ़ाते हैं
बिन दानों के आंतें धंसती जाती हैं
रोटी के नाम पर अंग खरीदे-बेचे जाते हैं
बेबस... मौत गले लगाते हैं
हर कोने से सिसकियां सुनाई देती हैं
फिर भी भारत में शांति है
काशी और अजमेर में बम फोड़े जाते हैं
बस्तर में नक्सली मारे जाते हैं
जम्मू कश्मीर में आतंकियों का डेरा है
उत्तर पूर्व में छिड़ा संग्राम घनेरा है
फिर भी भारत में शांति है
मैं इस शांत भारत का वाशिंदा हूं
और मुझे अपने भारत पर नाज है.