बचपन में आंसू ही मेरे शब्द थे
जब भी भूख लगती
आंसू छलक आते
कोई समझे या नहीं समझे
मां समझ लेती
कि बेटा भूखा है
थोड़ा बड़ा हुआ तो आंसू
मेरे हथियार बन गए
जब भी दिल को ठेस पहुंचती
या कोई मांग मनवानी होती
मैं चीख-चीख रोने लगता
आंसू बहाने लगता
मांगें पूरी हो जातीं
अब मैं बड़ा हो गया हूं
आंसू मेरे लिए शर्म हैं
दर्द ज्यादा क्यों ना हो
जख्म गहरा क्यों ना हो
दूसरों के सामने
आंसू नहीं छलकते
रोने पर शर्म महसूस होती है
लेकिन मेरे आंसुओं ने
मुझे धोखा कभी नहीं दिया
वो हमेशा साथ रहे
पलकों के भीतर छिप कर...
जब भी भूख लगती
आंसू छलक आते
कोई समझे या नहीं समझे
मां समझ लेती
कि बेटा भूखा है
थोड़ा बड़ा हुआ तो आंसू

मेरे हथियार बन गए
जब भी दिल को ठेस पहुंचती
या कोई मांग मनवानी होती
मैं चीख-चीख रोने लगता
आंसू बहाने लगता
मांगें पूरी हो जातीं
अब मैं बड़ा हो गया हूं
आंसू मेरे लिए शर्म हैं
दर्द ज्यादा क्यों ना हो
जख्म गहरा क्यों ना हो
दूसरों के सामने
आंसू नहीं छलकते
रोने पर शर्म महसूस होती है

मुझे धोखा कभी नहीं दिया
वो हमेशा साथ रहे
पलकों के भीतर छिप कर...
बहने के लिए सही वक़्त के इंतज़ार में
और जब मैं अकेला होता हूं
आंखें डबडबा जातीं हैं
आंसू छलक आते हैं
पलकों की क़ैद से मुक्त
गालों पर निर्मल गंगा बहने लगती है
दर्द का हिमालय पिघल जाता है
मैं हल्का महसूस करता हूं
हौसले से भरा हुआ भी
मेरे आंसू सिर्फ
मेरी शर्म ही नहीं
मेरी ताकत भी हैं
इसलिए अब भी रोता हूं
मगर बंद कमरे में और कभी कभी
क्योंकि मैं जानता हूं बात-बात पर
ताकत का इजहार बुजदिली है
और जब मैं अकेला होता हूं
आंखें डबडबा जातीं हैं
आंसू छलक आते हैं
पलकों की क़ैद से मुक्त
गालों पर निर्मल गंगा बहने लगती है
दर्द का हिमालय पिघल जाता है
मैं हल्का महसूस करता हूं
हौसले से भरा हुआ भी
मेरे आंसू सिर्फ

मेरी शर्म ही नहीं
मेरी ताकत भी हैं
इसलिए अब भी रोता हूं
मगर बंद कमरे में और कभी कभी
क्योंकि मैं जानता हूं बात-बात पर
ताकत का इजहार बुजदिली है
4 comments:
वाह, बेहतरीन कविता!
मैं भी रोता हूं. कभी कभी और जोर जोर से रोता हूं. वो गीत है ना ... रोएंगे हम हज़ार बार, कोई हमें सताए क्यों? इसलिए रोता हूं और शर्म महसूस नहीं होती है.
रोने का साहस करने वाले साहसी पुरुषों को सलाम। कविता अच्छी लगी। उसके भाव और भी अच्छे लगे।
घुघूती बासूती
Bahut gahri evam umda rachna.
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