Thursday, July 10, 2008

बड़ा हूं फिर भी रोता हूं

बचपन में आंसू ही मेरे शब्द थे
जब भी भूख लगती
आंसू छलक आते
कोई समझे या नहीं समझे
मां समझ लेती
कि बेटा भूखा है

थोड़ा बड़ा हुआ तो आंसू
मेरे हथियार बन गए
जब भी दिल को ठेस पहुंचती
या कोई मांग मनवानी होती
मैं चीख-चीख रोने लगता
आंसू बहाने लगता
मांगें पूरी हो जातीं

अब मैं बड़ा हो गया हूं
आंसू मेरे लिए शर्म हैं
दर्द ज्यादा क्यों ना हो
जख्म गहरा क्यों ना हो
दूसरों के सामने
आंसू नहीं छलकते
रोने पर शर्म महसूस होती है

लेकिन मेरे आंसुओं ने
मुझे धोखा कभी नहीं दिया
वो हमेशा साथ रहे
पलकों के भीतर छिप कर...
बहने के लिए सही वक़्त के इंतज़ार में

और जब मैं अकेला होता हूं
आंखें डबडबा जातीं हैं
आंसू छलक आते हैं
पलकों की क़ैद से मुक्त
गालों पर निर्मल गंगा बहने लगती है
दर्द का हिमालय पिघल जाता है
मैं हल्का महसूस करता हूं
हौसले से भरा हुआ भी
मेरे आंसू सिर्फ
मेरी शर्म ही नहीं
मेरी ताकत भी हैं
इसलिए अब भी रोता हूं
मगर बंद कमरे में और कभी कभी
क्योंकि मैं जानता हूं बात-बात पर
ताकत का इजहार बुजदिली है

4 comments:

मिथिलेश श्रीवास्तव said...

वाह, बेहतरीन कविता!

Unknown said...

मैं भी रोता हूं. कभी कभी और जोर जोर से रोता हूं. वो गीत है ना ... रोएंगे हम हज़ार बार, कोई हमें सताए क्यों? इसलिए रोता हूं और शर्म महसूस नहीं होती है.

ghughutibasuti said...

रोने का साहस करने वाले साहसी पुरुषों को सलाम। कविता अच्छी लगी। उसके भाव और भी अच्छे लगे।
घुघूती बासूती

Udan Tashtari said...

Bahut gahri evam umda rachna.