Tuesday, July 8, 2008

मेरे भीतर कुछ मर गया


मेरा देश एक है
आसमान में गरजते बादल की तरह
जो धरती पर गिरते वक़्त
बूंदों में बंट जाता है
एक दो नहीं बल्कि असंख्य
थोड़ी देर बाद वही बूंदे
फिर एक तो होती हैं
लेकिन बहुत कुछ खोकर

मेरा देश एक है
समंदर से उठती लहरों की तरह
जो किनारे बढ़ते वक़्त
एक दूसरे को मिटाती चलती हैं
इस क्रम में
उनका अपना वजूद भी मिटता जाता है

मेरा देश एक है
छोटे-बड़े, आड़े-तिरछे
हजारों टुकड़ों में बंटा
ठीक उसी तरह
जैसे मेरे भीतर एक नहीं
कई इंसान पलते हैं
कुछ उदार तो कुछ क्रूर... बेहद क्रूर

सब अपनी कुंठाओं को समेटे
हर वक़्त लड़ते रहते हैं
जरा-जरा सी बात पर
कभी-कभी भीतर मचा
घमासान बहुत घातक होता है
बीती शाम जब मेरे शहर से
दंगे की ख़बर आई
तो मेरे भीतर फिर घातक युद्ध छिड़ा
धार्मिक और सांप्रदायिक टुकड़ों के बीच

सिर दर्द से फटने लगा
जिस्म ने आदेश मानने से इनकार कर दिया
लगा भीतरघात से
किसी इंसान ने दम तोड़ दिया है
दूसरा जीत का जश्न मनाना चाहता है
मनाए भी तो कैसे
मैं तो एक हूं और मुझे
शोक के साथ जश्न मनाना नहीं आता
मैं दुर्योधन भी नहीं
और मुझे मृत्यु की प्रतीक्षा भी नहीं है

आज मेरे देश की हालत
ठीक मेरी तरह है
क्योंकि वो भी मेरी तरह
कई टुकड़ों में बंटा है
और उन टुकड़ों में घमासान मचा है

4 comments:

Unknown said...

मेरे भीतर भी कुछ मर गया है. देश के भीतर एक साज़िश चल रही है. अपने स्तर पर ही सही उस साज़िश का विरोध ज़रूर होना चाहिये. अच्छी कोशिश है. साधुवाद.

Unknown said...

एक सुझाव. आप ले आउट पर थोड़ा ध्यान दें. तस्वीर और शब्दों के बीच एक सही लय जरूरी है. ऐसा नहीं होने पर पढ़ने में थोड़ी असुविधा होती है. यहां साफ कर दूं बावजूद इसके भी कविता पढ़ने और आपका भाव समझने में मुझे खास दिक्कत नहीं हुई. एक बार फिर अच्छी कोशिश के लिए साधुवाद.

ghughutibasuti said...

आपके से ही विचार देश ही क्या शायद संसार को शायद बचा लें। इसके अतिरिक्त और बचने का रास्ता है भी नहीं हमारे पास।
घुघूती बासूती

Udan Tashtari said...

सोचने को मजबूर करती रचना!!