Tuesday, July 1, 2008

मैं ज़िंदा रहना चाहता हूं

मैं ज़िंदा रहना चाहता हूं
हर सांस ज़िंदगी जीना चाहता हूं
जैसे धरती पर फसल लहलहाती है
जैसे सुबह की धूप खिलती है
जैसे आसमान पर बादल घुमड़ते हैं
जैसे ऊंचे पर्वत से नदी निकलती है
जैसे समंदर में सुनामी लहरें उठती हैं
जैसे हजारों मीटर नीचे टैक्टोनिक प्लेट टकराती हैं
जैसे लावा धरती को फाड़ कर आसमान में उठता
ठीक वैसे ही मैं ज़िंदा रहना चाहता हूं
बिना किसी रोकटोक
बिना किसी हील हुज्जत
बिना किसी द्वंद
प्रकृति की उन तमाम हलचलों की तरह
उन तमाम रचनाओं की तरह
मैं हर सांस ज़िंदगी जीना चाहता हूं
जिन पर इंसान का बस नहीं है

2 comments:

jasvir saurana said...

bhut badhiya. likhate rhe.
please aap apna word verification hata le taki humko tipani dene me aasani ho.

Amit K Sagar said...

अच्छा लिख रहे हैं. साधुवाद. शुभकामनाएं.
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उल्टा तीर