Monday, July 28, 2008

मैं मिट्टी से बना हूं, मिट्टी में मिल जाऊंगा

((मिट्टी की महक मुझे पागल बना देती है। मैंने सपने बहुत देखे हैं, लेकिन मेरा हर सपना मुझे गांव की ओर खींचता है। ये सपने मुझसे कहते हैं कि “समर, तुम्हारी ज़िंदगी शहर में अधूरी है। तुम्हें तो जल्द से जल्द गांव लौट जाना चाहिये। खाली पड़ी ज़मीन पर बगीचे लगाने चाहिये. देखो अब तो बगीचे लगाने का चलन भी ख़त्म हो गया है और बिना बगीचों के गांव सांय-सांय, भांय-भांय करते हैं. लगता है कि धरती से उसके वस्त्र छीन लिये गए हैं”. मेरे सपने मुझसे कहते हैं कि “तुम एक मिट्टी का घर बनाओ... बांस और फूस के मचान बनाओ... गाय रखो, भैंस रखो, कुछ ऐसा करो ताकी तुम्हारी ज़िंदगी में शांति हो.... इतना तनाव क्यों लिये रहते हो ... शायद इसलिए कि शहर के ऊंचे मकान और दफ़्तर ने तुम्हें धरा से दूर कर दिया है. कोशिश करो कि एक बार फिर धरा के करीब। यही धरा तो तुम्हारी जननी और यही धरा तुम्हारा सबकुछ है”। आज मेरे उन तमाम सपनों और इस धरा को समर्पित एक कविता। शायद आपको ये पसंद आए... नहीं आए तो भी टिप्पणी ज़रूर करियेगा. उनसे बहुत कुछ सीखने को मिलता है.))

मैं मिट्टी से बना हूं
महसूस करता हूं
धरती का एक टुकड़ा
अपने भीतर, हर पल
कुछ रेत, कुछ कीचड़
कुछ करैली, कुछ दोमट
इसलिए शायद
मुझे पसंद है मिट्टी

याद है आज भी
बचपन के वो दिन
गर्मी की वो सुबहें
नदी किनारे जाना
साबुन की जगह
देह में मलना
काली मिट्टी
बेझिझक रगड़ना
चेहरे पर
इसलिए शायद
मुझे पसंद है मिट्टी

मुझे याद है आज भी
बरसात के वो दिन
लोटना साथियों संग
गांव की परती में
मिट्टी बन बिछ जाना
मिट्टी में
इसलिए शायद
मुझे पसंद है मिट्टी

मुझे याद है आज भी
मिट्टी से जुड़े वो खेल
वो ओल्हा पाती
वो राजा-रानी कबड्डी
वो चीका, वो कोइना
वो गोली, वो गिल्ली डंडा
मेरी तमाम सुनहरी यादों में
बसी है महक मिट्टी की
इसलिए शायद
मुझे पसंद है मिट्टी

मुझे याद है आज भी
जब पकता था खाना
मिट्टी के चूल्हे में
भूनते थे दाना
मिट्टी की भरसाईं में
हर दाने में आती थी
महक मिट्टी की
इसलिए शायद
मुझे पसंद है मिट्टी

आज भी जब तपती धरा पर
गगन से बूंदे पड़ती हैं
घुल जाती है
मिट्टी की गंध हवा में
और मैं खुद ब खुद
बाहर चला आता हूं
बंद कमरे से
तेज-तेज सांसें खींचता हूं
ये सोच कि हवा के साथ
थोड़ी और समाएगी
मिट्टी की महक मेरी रूह में
क्योंकि मिट्टी मुझे पसंद है

मिट्टी मुझे बहुत पसंद है
क्योंकि मैं जानता हूं
भले ही मुझमें अंश है
क्षिति, जल, अग्नि,
वायु और आकाश का
मगर साकार रूप में
बसी है सिर्फ़ मिट्टी
और एक दिन सारे बंधन तोड़
मिल जाना है मुझे
इसी मिट्टी में.

3 comments:

Vinay said...

wah, bhai kya rochak prasang chunakar kavita likh Dali, mazaa aa gaya!

Udan Tashtari said...

बहुत उम्दा, क्या बात है!

बालकिशन said...

शानदार प्रस्तुती.
बस साहब बस.
अब अपने आप को नौसिखिया कहना बंद कर दीजिये.