
शहर आकर क्या झुंड में उड़ने वाले
परिंदे भी बदल जाते हैं
ठीक वैसे ही जैसे इंसान
बदलता है भूखे भेड़िये में
क्या वो साथ उड़ने की जगह
उड़ने लगते हैं अकले
क्या उनमें भी दूसरों को रौंद
आगे बढ़ने की हवस पैदा हो जाती है
क्या वो भी जरूरत से ज़्यादा
जमा करने की चक्कर में
ठीक वैसे ही जैसे इंसान
बदलता है भूखे भेड़िये में
क्या वो साथ उड़ने की जगह
उड़ने लगते हैं अकले
क्या उनमें भी दूसरों को रौंद
आगे बढ़ने की हवस पैदा हो जाती है
क्या वो भी जरूरत से ज़्यादा
जमा करने की चक्कर में
दूसरों का हक़ मारते हैं
क्या वो भी आसमान बांटते हैं
जैसे हमने बांट दी है जमीन
जैसे हमने बांट दी है जमीन
अगर हां, तो ये शहर
बहुत गंदा और विभत्स है
इस शहर को मिटा दो
अगर नहीं, तो चरित्र और चेहरा
बदलना इंसानी फितरत है
जरा गौर से सोचिये
आपका जवाब हां है या नहीं
मेरा जवाब है नहीं
मैंने इसे करीब से महसूस किया है
इंसान से ज़्यादा ख़तरनाक
धरती पर कोई और नहीं.
बहुत गंदा और विभत्स है
इस शहर को मिटा दो
अगर नहीं, तो चरित्र और चेहरा
बदलना इंसानी फितरत है
जरा गौर से सोचिये
आपका जवाब हां है या नहीं
मेरा जवाब है नहीं
मैंने इसे करीब से महसूस किया है
इंसान से ज़्यादा ख़तरनाक
धरती पर कोई और नहीं.
2 comments:
समर जी,बहुत बढिया रचना है।
"चरित्र और चेहरा
बदलना इंसानी फितरत है"
सच में बदलना इंसान की ही फितरत हैं. मैंने भी कई लोगों को बदलते देखा है. कामयाबी की भूख में..
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