Saturday, July 12, 2008

क्या शहर में परिंदे भी बदल जाते हैं


शहर आकर क्या झुंड में उड़ने वाले
परिंदे भी बदल जाते हैं
ठीक वैसे ही जैसे इंसान
बदलता है भूखे भेड़िये में
क्या वो साथ उड़ने की जगह
उड़ने लगते हैं अकले
क्या उनमें भी दूसरों को रौंद
आगे बढ़ने की हवस पैदा हो जाती है
क्या वो भी जरूरत से ज़्यादा
जमा करने की चक्कर में
दूसरों का हक़ मारते हैं
क्या वो भी आसमान बांटते हैं
जैसे हमने बांट दी है जमीन
अगर हां, तो ये शहर
बहुत गंदा और विभत्स है
इस शहर को मिटा दो
अगर नहीं, तो चरित्र और चेहरा
बदलना इंसानी फितरत है
जरा गौर से सोचिये
आपका जवाब हां है या नहीं
मेरा जवाब है नहीं
मैंने इसे करीब से महसूस किया है
इंसान से ज़्यादा ख़तरनाक
धरती पर कोई और नहीं.

2 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

समर जी,बहुत बढिया रचना है।

Unknown said...

"चरित्र और चेहरा
बदलना इंसानी फितरत है"
सच में बदलना इंसान की ही फितरत हैं. मैंने भी कई लोगों को बदलते देखा है. कामयाबी की भूख में..