Sunday, July 27, 2008

मिट रहे हैं गांव

((गांव काफी बदल गए हैं. अब वो पहले जैसे नहीं रहे. वहां सामूहिकता का जो थोड़ा-बहुत भाव था अब वो ख़त्म हो गया है. मुझे याद है कि होलिका दहन के वक़्त हम लोग दूसरों के घरों से गोइंठा, लकड़ी जो कुछ मिलता चुरा लाते थे. उस घर के बड़ों को ये बात पता चलती तो भी तो कुछ नहीं कहते. आज ऐसा करने पर झगड़ा शुरू हो जाएगा. यही नहीं गांवों में भी शांति नहीं है. हाल ही में मैं गांव गया था. काफी झटका लगा. दिन भर लाउडस्पीकर का शोर कान के पर्दों को चीरता रहा. मोबाइल की घंटी वहां भी पीछा नहीं छोड़ती. शहर जितना भले ही नहीं हो, गाड़ियों का शोर वहां भी है. उसी पर पेश हैं चंद लाइनें. शायद आपको पसंद आएं. नहीं भी आए तो भी टिप्पणी जरूर करियेगा. कुछ सीखने को मिलेगा.))


मेरा गांव
गांव नहीं रहा
शहर बन गया है
रास्ते कंकरीट के
मकान कंकरीट के
और अब इंसान भी
कंकरीट के हैं
सिर्फ़ खेत ही शेष हैं
जो हल्का सा ही सही
आभास कराते हैं गांव का
मगर मालूम है मुझे
ज़ल्द आएगा वो दिन
जब हरे भरे खेतों में
लहलहाएगी फसल कंकरीट की

3 comments:

Anil Pusadkar said...

bahut badhiya.badhayi aapko.gaon ki badalti tasweer maine bhi khinchi hai shabdon se kabhi fursat mile to mere blog par bhi nazar daal lena

तरूश्री शर्मा said...

सही कहा आपने...
लेकिन मुझे तो चिंता है कि अब शायद खेतों में कंकरीट भी ना उगे।
या तो नमी नहीं... और या कि खून की तरावट,
दोनों स्थितियों में कुछ नहीं उगता।
भगवान खैर करे।

Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झा said...

गांव मिट नहीं रहे हैं, हमारे द्वारा मिटाए जा रहे हैं। बस प्रयास करेन की जरूरत है, गांव, गांव की तरह बच सकते हैं। मेरा यह अपना विचार है। गांव में विकास की किरण पहंचने दें, रेणु की तरह पंचलाइट लेकर हमें आगे जाना होगा....

भाई बदलाव होने दें और साथ में गांव की महक को भी बरकरार रखें, आप यह नहीं समझें की खेतों में कंक्रीट आ जाएंगे....सब ठीक होगा..