Sunday, July 6, 2008

इंसान या सामान...



यूं ही राह चलते
उस पर मेरी नज़र पड़ी
आंखें धंसी हुईं
सूनी, उदास और पीली
बाल उलझे हुए
जिस्म हड्डियों का ढांचा मात्र
और हड्डियां इतनी कमजोर कि
हवा हो चुके जिस्म का भार भी उठा न सकें
वो इंडिया गेट के ठीक सामने
फुटपाथ पर किसी
गठरी सी बैठी थी
जैसे किसी ने
मैले फटे हुए कपड़े में
कोई सामान बांध
छोड़ दिया हो
इस बेफिक्री में कि
वो सामान किसी काम का नहीं

1 comment:

महेन said...

आप कविता अच्छी लिखते हैं। लगातार 3-4 पढ़ीं। लगभग सभी अच्छी लगीं मगर यह सबसे बेहतर। नौसिखिया शब्द हटा दें तो भी चलेगा। ;)
शुभम।