Sunday, July 27, 2008

वो खिल ना सकी

((हम एक ख़तरनाक दौर में जी रहे हैं. ऐसे ख़तरनाक दौर में जहां कुछ भी हो सकता है. किसी के साथ ... कभी भी ... कहीं भी. ये उसी ख़तरनाक दौर की निशानी है कि १४-१५ साल की उम्र में बच्चे क़ातिल बन जाते हैं ... और मासूम बच्चियों को क़त्ल कर दिया जाता है. ये वो दौर है जहां बच्चे वक़्त से पहले बड़े हो जाते हैं. लगता है कि बचपन कहीं गुम हो गया है. ये कविता कुछ महीने पुरानी है. इन्हें आज चस्पा कर रहा हूं. आपकी आलोचनाओं का इंतज़ार रहेगा.))

उसे खिलना था
मुस्कुराना था
हवा में लहराना था
नरम, मुलायम पंखुड़ियों पर
ओस की नमी मसहूस करनी थी
फिजा को महकाना था
भंवरों को खींचना था
मुझे और आपको रुहानी सुकून देना था
न जाने कितनी उदास ज़िंदगियों में
न जाने कितने चटख रंग भरने थे
अचानक आंधी आई
कली ही नहीं
पौधा उखड़ गया
एक जानवर तेजी से दौड़ता
रौंद कर गुजर गया.

2 comments:

Vinay said...

हम बेवहज नहीं कह रहे, बस 'नौसिखिया' शब्द को ब्लॉग से हटा दो. यार कमाल का कलाम लिखते हो!

Anwar Qureshi said...

बहुत अच्छा लिखा है आप ने .... उम्मीद है बहुत कुछ सीखने को मिलेगा आप से ..धन्यवाद ..