Friday, July 11, 2008

शेष रह जाएंगे पछतावे के आंसू

मैंने उस शिकारी को देखा है
करीब से, बहुत करीब से
सफेद लिबास में वो हमारे बीच रहता है
हमारा ही शिकार करने के मकसद से

वो शिकारी भेड़िये की तरह धुर्त है, क्रूर भी
लहू बहाना उसका शौक है, पेशा भी
मौका मिलते ही वो घातक वार करता है
जिस्म के किसी कमजोर हिस्से पर
ताकि हम उठ ना सकें, प्रतिरोध कर ना सकें

बीते वक़्त में हमने झेले हैं उसके वार
एक-दो बार नहीं हजार बार
कभी पीठ पर तो कभी गर्दन पर
हर बार मिले हैं गहरे जख़्म
जो सालते रहते हैं सदियों तक
पेट में पल रहे अल्सर की तरह

पहले ही कह चुका हूं कि वो बहुत धुर्त है
इतना कि हमले के बाद खुद सामने नहीं आता
आगे कर देता है हमारे जैसे ही चंद लोगों को
हमलावर बता कर, शिकार बनने के लिए

बदला लेने की हवस में
हम एक दूसरे का लहू बहाते हैं
गुजरात में हमने ऐसा ही किया
भागलपुर और मुंबई में भी यही हुआ
हम इंसान से जानवर बने
वो दूर, बहुत दूर बैठ
मुस्कुराता रहा, तमाशा देखता रहा
हिंसा का लुत्फ़ उठाता रहा
एक रक्त पिपाशु की तरह
बहते लहू को देख ठहाका लगता रहा

साज़िश यहीं ख़त्म नहीं होती
अभी आखिरी अध्याय बाकी है
कहीं ज़्यादा ख़तरनाक
कहीं ज़्यादा विभत्स

अब वो शिकारी चोला बदलता है
हमारे बीच आता है हमदर्द की तरह
कहता है तुम मुझे वोट
मैं तुम्हें इंसाफ़ दूंगा
हम फिर धोखा खाते हैं
धोखा खाना हमारी फ़ितरत है
हम अपने ही क़ातिल को
अपना हुक्मरान बनाते हैं

एक बार फिर उस शिकारी ने
साज़िश का जाल बुना है
मेरा शहर जल उठा है
मैं तुम्हें आगाह करता हूं
जो जिसकी इबादत करता है
उसी के नाम पर
हो सके तो अपने शहर को
जलने से बचा लो
वरना तुम्हारे हिस्से भी
मेरी तरह आंसू आएंगे
पछतावे के आंसू
जो ना चैन से जीने देते हैं
ना चैन से मरने.

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