Saturday, July 26, 2008

ज़िंदगी

कौन कहता है हसीन है ज़िंदगी
बहुत बदसूरत, बंदरंग है ज़िंदगी
कसैली सी कड़वी है
कांटों सी चुभन भरी
गांव हो या शहर
झुंझलाहट, चिड़चिड़ाहट
नफ़रत, गुस्सा
हताशा, निराशा से भरी है ज़िंदगी
बोझिल शाम सी
उदास सुबह सी
उमस भरे दिन सी
चिलचिलाती दोपहर सी ज़िंदगी
हर सुबह अलार्म का शोर
कॉल बेल की टन टन
मोबाइल की ट्रिन ट्रिन
गाड़ियों की चिल्ल पों
ट्रैफिक जाम सी है ज़िंदगी
मैं पीछा छूड़ाना चाहता हूं
बहुत दूर जाना चाहता हूं
लेकिन कुछ कुछ दलदल सी है ज़िंदगी
मैं धंस रहा हूं
बचाओ बचाओ चिल्ला रहा हूं
जाल में फंसे परिंदे सा
फड़फड़ा रहा हूं
बहुत क्रूर शिकारी सी है ज़िंदगी
मेरी बेबसी पर हंसती है ज़िंदगी

1 comment:

मोहन वशिष्‍ठ said...

वाह समर जी बहुत अच्‍छी कविता जीवन की सच्‍चाईयों पर खरी उतरती है बहुत अच्‍छा